Wednesday, June 18, 2014

धर्ममाचरेत्


अजरामरवत् प्राज्ञ: विद्यामर्थं च साधयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥



प्राज्ञ (बुद्धिमान्) को ज्ञान और अर्थ इस प्रकार प्राप्त करना चाहिये जैसे कभी भी जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु नही होगी और धर्माचरण इस प्रकार करना चाहिये जैसे कि मृत्यु केश पकड़कर ले जा रही है।

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